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मंगलवार, दिसंबर 18, 2012

New Android phones under Rs10,000/-


    Top 7 Android smartphones under Rs. 10,000

When it comes to mobile phones, android is the most popular mobile operating system, used by many and with access to Google play that houses thousands of apps and still growing. Android phones are affordable and for under Rs. 10,000 you can really get a good deal.
Visitors have been asking me a common question as to which is the best handset and for them here is the Top 7 Android smartphones for under Rs. 10,000. I hope this list will help them choose the right model. The models were selected based on the price, features and the overall performance.
Top 7 Android phones in India
1. Micromax A110
As for now the A110 rules. Not just price wise but also feature wise. Its dual core and can run many high end games. A perfect gadget for gaming lovers or those who are using the Android OS for the first time.
The A110 sports a 5 inch screen,  ICS, 512MB RAM, 4GB internal storage and 8MP camera. 
Price : Rs. 9,999.
2. Karbonn A18
This is with 1GHz single core processor and 512MB RAM. The display screen is 4.3 inches with WVGA resolution. The A18 comes with 5 MP camera with LED flash. This handset has got good user reviews, but for now the price tag is too close to the A110.
Price: Rs. 9,800.
3. Karbonn A11
A good smartphones which actually beats the A18. The A11 comes with 1GHz processor with 4 inch WVGA screen . The key attraction is the 5MP camera with 720p video recording. The price is lower that the above models but not that low. The handset runs on ICS OS with 512MB RAM. 
Price : Rs. 8,490.
Top Android Phones under Rs. 10,000
4. Karbonn A7+
An upgraded A7+ again with a 1 GHz processor, 5MP camera and dual SIM support. The A7+ runs on the gingerbread OS i.e. Android 2.3 with 512MB RAM.  Display screen is 3.5 inches with HVGA resolution.
Price: Rs. 7,000.
5. Karbonn A5
An affordable phone with premium look. The A5 is powered by 800MHz processor and running Android 2.3 with 512MB RAM. This handset also comes with 2MP camera and a 3.5 inch touchscreen with HVGA resolution. 
Price: Rs. 4,990.
6. Micromax A50 or Micromax Ninja 3 A57
Either go for A50 or A57, though A57 is better with HVGA screen but many users are facing issues installing new apps. The RAM is 256MB on both and the internal storage space for apps is less on A57 as compared with A50. A57 is with 1GHz processor and A50 with 650Mhz.
Price Rs. 4999 (A50) and Rs. 4750 (A57).
Micromax A52
This is with a 3.2 inch screen with QVGA resolution. A dual SIM 1GHz powered phone with 2MP camera and 256MB RAM. The A52 runs on Android 2.3 OS. This is better than A50 cause it comes with more processing power.
Price Rs. 4,699
Byond B50
Another 1gHz cortex A5 phone with dual SIM feature, 3MP camera and 1.3MP front camera. The display screen is 3.5 inches with HVGA resolution. A good option to A50 / A52 however its not a known brand and many users might have heard this for the first time.
Price Rs. 3,999.
7. Micromax A25
Probably the cheapest (better performing) android handset with 1GHz processor with QVGA screen of 2.8 inches. This one comes with 256MB RAM and a free internal storage of around 120 MB. 3G is not supported on this phone.
Price Rs. 3,999.
Before purchasing any of the said mobile please check the latest price. Some times online selling companies offer better deal than retailers offer.

मंगलवार, दिसंबर 20, 2011


दिल आखिर तू क्यूँ रोता है
जब -जब दर्द का बादल छाया
जब गम का साया लहराया
जब आंसू पलकों तक आया
जब यह तनहा दिल घबराया
हमने दिल तो यह समझाया
दिल आखिर तू क्यों रोता है
दुनिया में यूँही होता है
ये तो गहरे सन्नाटे हैं
वक्त ने सबको ही बांटे हैं
थोडा गम है सबका किस्सा
थोड़ी धुप है सबका हिस्सा
आखें तेरी बेकार ही नम है
हर पल एक नया मौसम है
क्यूँ तू ऐसे पल खोता है
दिल आखिर तू क्यूँ रोता है

बिन वीआईपी स्टेटस सब सून


अभी पिछले ही दिनों रेलवे ने प्रथम श्रेणी का कोच फ़ुल हो जाने पर कुछ माननीयों को राजधानी एक्सप्रेस के द्वितीय श्रेणी में बर्थ दे दिया। । इस पर मननीयों ने रेलवे से शिकायत की कि उन्हें प्रथम श्रेणी की बजाय द्वितीय श्रेणी मे बर्थ क्यों दिया गया । इस मुद्दे पर उन्होने रेल मंत्री तक से  शिकायत कर दी । ईलैक्ट्रोनिक मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक हाहाकार मचा दिया । इस प्रकार तीन महीना पहले से आरक्षित टिकट लेकर अपनी यात्रा का प्लान बनाये हुये यात्रियों की ट्रेनों को अचानक कैंसल कर देने वाली रेल प्रतिदिन हजारों लाखों यात्रियों को एक अदद सीट तक मुहैया न करा पाने वाली रेलबोगी के साथ साथ टायलेट तक में भेंड़बकरियों की तरह ठुंस ठुंस कर अपने गंतव्य तक जाने के लिये मजबूर लोगों के लिये कुछ न कर पाने वाली रेलट्रेनों तथा प्लेटफ़ार्मों पर टीटीई,टीसी,आरपी एफ़जीआरपी के हाथों रोज लुटने पीटने वाले यात्रियों की दशाओं पर संवेदनहीन रेल ने इन माननीयों के वईआईपी दर्जा कम कर दिये जाने से स्वंय आहत एव द्रवित हो कर तत्काल कार्यवायी की ।और वे वीआईअपी माननीय अंततकुछ लोगों की बलि लेकर ही शांत हुये।
बिहार की सरकार ने पिछ्ले दिनों एक विधायक की हत्या से द्र्वित होकर तत्काल विधायकों के व्यक्तिगत बाडीगार्ड की संख्या एक से बढाकर दो कर दी तथा उनके घर पर सुरक्षाकर्मी की संख्या को कर दिया। अब देखिये सरकार को आम जन की सुरक्षा की परवाह नही है । इस राज्य में जहां प्रति एक लाख व्यक्ति पर मात्र 80 पुलिस कर्मी हैं । जहां राज्य सरकार समाज में बढते अपराध के कारणों मे पुलिस बल की कमी को सबसे प्रमुख कारण बताती है जहां आम जन के लिये पुलिस बल नही है वहां वीआईपी के लिये बल की कमी नही है।

लोकसभा, जहां देश के चुने हुए 'आदरणीय' सांसद बैठते हैं, की विशेषाधिकार समिति ने कहा है कि सांसदों को अपनी गाड़ी पर लाल बत्ती लगाने का हक मिलना चाहिए। समिति ने इसके लिए सेंट्रल मोटर वीकल्स ऐक्ट के तहत हाईवे मिनिस्ट्री से नॉटिफिकेशन जारी करने की सिफारिश की है। वर्तमान संसद सत्र और पिछले कई सत्रों में इन सांसदों का व्यवहार हास्यास्पद रहा है। इसके बावजूद वे चाहते हैं कि उनके 'सम्मान का दर्जा'बढ़ा दिया जाए। यानी वे चाहते हैं कि वे वीआईपी की लिस्ट में कुछ पायदान ऊपर चढ़ जाएं।
उनकी मांग जायज है या नाजायज, इस मुद्दे पर आप बहस-मुबाहिसा शुरू करने से पहले जरा सोचिए। वास्तव में इस देश में वीआईपी का दर्जा आम आदमी को मिलना चाहिए। और, ऐसा कोई विशेषाधिकार वास्तव में दिया जाना है तो खुद आम आदमी द्वारा चुने गए सांसदों से बेहतर उम्मीदवार कौन हो सकता है? अगर बाबू और दूसरे लोगों को यह विशेषाधिकार मिल सकता है, तो सांसद में हमारा प्रतिनिधित्व करने वाले सांसदों को क्यों नहीं? सुनने में तो तर्क दमदार लगता है!
मुझे नहीं पता वीआईपी की यह 'पूजा' कहां से शुरू हुई, लेकिन इतना तो तय है कि इसने सबको दुख पहुंचाया है। जिन्होंने इसे पा लिया है, जो इसे पाना चाहते हैं और या फिर जो उधार की महिमा में जीना चाहते हैं, वीआईपी बनने की हसरत हर किसी में है। यह मान लिया जाता है कि अगर आपको लाइन लगकर अपना काम कराना पड़े तो आप महत्वपूर्ण नहीं है। या तो आप खुद सक्षम हों या किसी ऐसे दूसरे सक्षम व्यक्ति को जानते हों जो बिना लाइन के आपका काम करा दे। इसे अगर और खुलेआम कर सकें तो फिर क्या कहना। यानी लाइन में लगी 'दुर्भाग्यशाली गरीब आत्माओं' को पता चलना चाहिए कि आपको लाइन में लगने से छूट दी गई है। इसके लिए वीआईपी बनने की चाहत रखने वाली मानसिकता के लोगों को ही कोसना गलत होगा। आम आदमी भी इसी तरह की मध्यकालीन मानसिकता से पीड़ित है, जिसके मुताबिक बड़े आदमी की पहचान यही है कि कानून तोड़ने के बाद भी कोई उसका कुछ न बिगाड़ सके।
दूसरी बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने बी.सी. खंडूरी पहली बार अपने विधायकों और मंत्रियों की शिकायत पर हटाए गए थे। उनके विधायकों (जो कि मंत्री भी नहीं थे)की एक मुख्य शिकायत यह भी थी कि मुख्यमंत्री उन्हें गाड़ियों पर लाल बत्ती लगाने की अनुमति नहीं देते हैं। सीएम ने उन्हें आदेश दिया था कि वे आम आदमी की तरह बर्ताव करें और आम आदमी को यह अहसास करवाएं कि वे (विधायक और मंत्री) उन्हीं में से एक हैं। खंडूरी की मंशा कितनी भी अच्छी क्यों न हों, वह भूल गए कि जनता द्वारा चुना गया प्रतिनिधि खुद को 'वीआईपी'के तौर पर देखना चाहता है। उस दौरान उनमें से कुछ के साथ पत्रकारों से बातचीत भी हुई और वे बार-बार यही कह रहे थे कि वोटर भी बिना लाल बत्ती वाली गाड़ी के हमें भाव ही नहीं देते। बात में दम तो है!
अब सचाई यह है कि हमें यह पसंद आए या नहीं, एक आम मानसिकता के तहत सारा माजरा शासक और प्रजा का है। हम सांसद और विधायक चुनते हैं ताकि वे हम पर शासन कर सकें, न कि सरकार चलाएं। हम उन्हें चुनकर ऐसी जगह पहुंचा देते हैं, जो आम आदमी की पहुंच से बाहर है। हम उन्हें किन्हीं राजाओं और रानियों की तरह शासन करता देखना चाहते हैं या फिर कम से कम ऐसे महत्वपूर्ण दरबारी (सत्ता के हिस्से) के तौर पर देखना चाहते हैं जो थोड़ा कम 'दुष्ट'हों। हालांकि, हों वे वीआईपी ही।
यह हमारी मानसिकता है कि हम पॉलिटिकल पावर को महत्व और इज्जत के साथ जोड़कर देखते हैं। अगर आप कानून को तोड़ने में सक्षम नहीं हैं, अगर आपके गिरेबान तक कानून का हाथ पहुंच जाए, तो आप कुछ भी नहीं हैं। बेचारे सांसदों को गाड़ियों पर लाल बत्ती की मांग के लिए कोसना भी हमारी मानसिकता का पुरस्कार है।
हालांकि, हम अपनी इस मानसिकता में धीमी गति से ही सही, लेकिन एक बदलाव देख सकते हैं। कुछ वीआईपीज़ इस बदलाव को स्वीकार कर रहे हैं (जैसे कि खंडूरी)लेकिन लगता है कि हमारे सांसदों ने बदलती हवा का रुख अभी भांपा नहीं है। आशा है कि उन्हें भी जल्द ही एहसास होगा। मुझे खुशी होगी अगर वे इसे मुश्किलों के बाद सीखें।

सोमवार, मार्च 28, 2011

जापान - एक अनुकरणीय उदाहरण

25 मार्च को एक स्थानीय अखबार में एक तस्वीर देखी. देख कर लगा कि जापान का आत्मबल और स्वाभिमान क्या है? तसवीर जापान से जुडी थी. दो तस्वारें एक साथ छपी थीं. एक 17 मार्च 2011 की. ठीक उसके साथ, उसी जगह की 23 मार्च 2011 की दुसरी तसवीर. पहली तसवीर में दृ्श्य था , 11 मार्च को जपान में आये भुकंप और सुनामी के बाद जापान के नाका में तबाह राष्ट्रीय राजमार्ग का खंडहर में तब्दील सडक, दरारें, धरती फटी हुई, बडे़ - बडे़ गड्ढे. इस तसवीर के बगल में इसी सड़क की तसवीर छपी है 23 मार्च की. राष्ट्रीय विपदा की इस घड़ी में जापान ने 17 मर्च से इस सड़क का पुनर्निर्माण शुरु किया, 23 मार्च तक वहां सड़क सुंदर साफ सुथरी दिखती है. मानो कुछ हुआ ही नहीं. जिन बाहरी लोगों ने इसे देखा उन्हें यकीन ही नहीं हुआ.कि 7 दिन पहले यह सड़क किस रुप में थी? प्रकृ्ति के कहर - कोप पर मानव विजय का प्रतीक व सक्षात उदाहरण.
पूरी दुनिया, टीवी और अखबारों में जापानी जनता का धैर्य - संयम और साहस देख रही है. दुनिया की सबसे प्रलयंकारी प्राकृ्तिक विपत्ति के बावजुद कोई हाहाकार नहीं, न छाती पीटते या आत्मरुदन करते जापानी, न क्रोध, न लूटपाट,न दयाभाव न याचना. कतारों में धैर्य के साथ खड़े जापानी, जिनका सब कुछ लुट गया है. जो भी थोडी़ बहुत राहत या सामग्री मिलती है, उसे ही आपस में धैर्य पूर्वक बांटते हैं लोग. चेहरे पर संतोष के भाव ,पर भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिये संकल्प से परिपूर्ण. यह राष्ट्रीय चरित्र है,जापान का .
ईश्वर से चुपचाप प्रार्थना करिए कि वह दुनिया में इस चरित्र, स्वाभिमान, धैर्य , और संकल्प वाली जापानी कौम के प्रति दया - ममता दिखायें, धैर्य, बल और साहस दें. ऎसे लोगों की तादात संसार में बढे.
25 मर्च की ही दूसरी खबर है,जापान के स्टाक एक्सचेंज के माध्यम से दुनिया के निवेशकों ने एक सप्ताह मे 1.2 बिलियन डालर जपान में निवेश किया है. सात दिनों में विदेशी निवेश का यह एक रिकार्ड है.दुनिया के निवेशक इस बात पर सहमत हैं कि जापान का यह संकट , महज एक विराम है. जापानी इस संकट से और मजबूत होकर उभरेंगे. मशहूर कहावत है कि हर संकट - विपत्ति में एक अवसर छुपा होता है. दुनिया के निवेशक यह मान रहे हैं कि जापानी लोगों ने बडी़ बडी़ घोषणाओं से नहीं , अपने कर्म ,फर्ज़ और धीरज से साबित कर दिया है कि वे खंडहर से भी उठ खडे़ होंगे.
एक मशहूर कहावत है कि संकट में ही चरित्र और धैर्य की परख होती है. जापान ने यह साबित कर दिया है. जापान की इस विपत्ति पर मशहूर पत्रिका टाइम  ने विशेष अंक (28 मार्च,2011) निकाला है. इस खास अंक में एक विशेष रिपोर्ट है 'हाउ जापान विल रेअवेकेन'( जापान कैसे पुन: उभरेगा़?), इस रपट में कई मार्मिक प्रसंग हैं. मथने और बेचैन करने वाले. कोजी हागा नामक जापानी से टाइम के पत्रकार मिलते हैं. मछली मारने वाले जहाज के कैप्टन हैं वे.उनके गांव - घर और शहर (10,000 आबादी) के निशान मिट गये हैं.उस समय वे सागर की लहरों पर अपने जहाज पर थे. लौटे तो तुरंत अपने घर गये, टाइम के पत्रकार भी साथ थे. कुछ भी नहीं बचा था.परिवार के एलबम और बेटी के गुलाबी खिलौने बिखरे पडे़ थे. जो मिला लेकर वे जीवित लोगों को खिलाने गये. खाने की जो चीजें मिली उसे वहां आये लोगों में बांटा.अगले दिन वे बचे लोगों के साथ गांव की सफाई - पुनर्निर्माण में लग गये. उस गांव को आबाद करने में, बसाने में जिसे प्रकृ्ति ने नक्शे से ही मिटा दिया है. टाइम के पत्रकारों से उनहोनें कहा - हम फिर अपनी सर्वश्रेठ कोशिश करेंगे, चीजों को यथावत बनने की . यही जापान की जीवनप्द्धति है कि बिना किसी दया, याचना या अहंकार के कोजी हागा के ये शब्द निकले.
फुकुशिमा शहर स्थित परमाणु संचालित पावर प्लांट में विस्फोट पर दुनिया की नज़र थी , पर कैसे इस प्लांट में काम करने वाले तकरीबन 150 लोगों ने इस विस्फोट को काबू करने के लिए काम किया वह मानव इतिहास में साहस , वीरता और उद्देश्य परक जीवन का अमर अध्याय बनेगा. वहां जो भी काम करने गया, वह यह जान कर गया कि लौटने की कोई संभावना नहीं! बच भी गये , तो परमाणु विकिरणों से तबाह या अपाहिज जिंदगी की संभावना. यह सब जान कर भी इस विस्फोट पर काबू करने के लिये जो काम पर गये,उनके परिवार वालों ने भी उन्हें साहस और धैर्य के साथ विदा किया.यह जानते हुये भी कि यह मृ्त्यु द्वार में प्रवेश की घड़ी है. फिर मिलने की संभवना नहीं.
यह मानस समझने की जरूरत है. जापानी मानते हैं कि ऎसी प्राकृ्तिक आपदाओं में आप क्या कर सकते हैं?कुछ भी नहीं बचने की तरकीब के प्रति सजगता हो. पुनर्निर्माण का साहस और निजी और सामाजिक संकल्प हो. यही मनुष्य , समाज व देशों की असल ताकत है. और पहचान भी.
दुसरे विश्वयुद्ध में तबाह जापान को लोगों ने देखा ,धूल और राख से चोटी की यात्रा. उस पीढी के एक जापानी ने कहा - हम उस युद्ध में हारे लोग थे. तबाह और बर्बाद . पर वही मुल्क दो पीढियों मे दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था वाला लोकतांत्रिक मुल्क बना. विषमता और गरीबी को पछाड़ कर हमने लोगों के लिये दुनिया की श्रेष्ठ सुख सुविधायें और जीवन स्तर हासिल किये. एक 24 वर्षीय जापानी युवा ने टाइम से कहा- अब हमारी बारी है, हम जापान का पुनर्निर्माण करेंगे. यह आत्मविश्वास!
हम भारतीयों के लिये जापान से सबक क्या हैं? अनेक और असंख्य . सब कुछ सरकार भरोसे, माई- बाप सरकार. उधर विपक्ष ऎसी स्थिति में, सरकार को ऎसी प्राकृ्तिक तबाही के लिये जिम्मेदार बताने के लिये सारी उर्जा लगा देगा. प्रभावित लोग छाती पीट पीट कर राहत - मदद की बात करेंगे. केंद्र राहत पर नयी राजनीति शुरू कर देगा. राज्य सरकारें , केंद्र को कठघरे में खड़ा करने का अभियान चलायेंगी. लाश पर राजनीति!
जापान के इस दुर्भाग्य में कहीं आपने यह सब सुना ? हर जापानी चुपचाप सड़कों पर उतर आया, एक दूसरे की खामोश मदद में . उदास चेहरे, भरी आंखें, पर मदद और फर्ज़ के लिये तैयार हाथ. किसी से न कोई शिकायत - न गिला. अपने कर्म पर विश्वास . गीता की मन: स्थिति.
जापान में एक कहावत है- कायर, सिपाही नहीं होते. हर जापानी प्राकृ्तिक आपदा की इस स्थिति मे मुल्क का सिपाही है. बहादुर और दुनिया के लिये प्रेरक उदाहरण के रूप में.

गुरुवार, मार्च 24, 2011

बिहार दिवस का आयोजन

21 मार्च से बिहार मे बिहार दिवस का आयोजन हो रहा है.उद्घाटन के दिन तो मुझे जाने का मौका नही मिला लेकिन किसी तरह कल जाने का मौका मिल ही गया.सचमुच अद्भुत था सारा नजारा.
"बहुत साल बाद पटना में बांसुरी बजाने में आनंद आया. अब आप जो सुनना चाहते है बोलिये हम वही सुनायें"गे. ये अल्फाज़ थे जाने माने बांसुरी वादक पंडित हरि प्रसाद चौरसिया के. वे राग मारू बिहाग में आलाप से रहे थे और सामने बैठे सुधी संगीत प्रेमी तल्लीनता के साथ उस मधुर संगीत को सुन रहे थे.
दो हजार से ज्यादा की भीड़ श्री कृ्ष्ण मिमोरियल हाल में पूरी तनमन्य होकर पंडित हरि प्रसाद चौरसिया के बांसुरीवादन को सुन रही थी तो लग ही नही रहा था कि हम बिहार मे हो रहे किसी प्रोग्राम के बीच हैं.खुद मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार भी लगभग 11.45 बजे तक सभी सुधी श्रोताओं के साथ इस स्वर लहरी में आनंद के गोते लगाते रहे.
गांधी मैदान में बिहार दिवस का दुसरा दिन. दीखी धुप की चुभन और पसीने से तर बतर चेहरे. बावजुद चमकते चेहरे पर गौरव का भाव. मन मे उत्साह. आंखों में सुनहरे सपने. हाव भाव में कुछ कर गुजरने की ललक.
बिहार के सौवें साल को यादगार बनाने की सरकारी पहल में उम्मीद से बढकर जन भागीदारी. सुबह से शुरु हुये इस सिलसिले में ज्यों ज्यों सुरज के ताप में कमी आती गयी भीड़ बढती गयी. शाम ढलने के बद लोगों के भीड़ इस कदर उमडी़ की तिल रखने की भी जगह नहीं बची.
सब की आंखों में था एक बदले हुये बिहार का गौरव.

शुक्रवार, जून 04, 2010

रेलवे बोर्ड ने कैंसर के रोगियों का कोटा कम किया


      रेलवे बोर्ड ने अपने नये सर्कुलर में कैसर रोगियों को  इमरजेंसी कोटा से स्वत: प्रदान होने  वाले वाली सीट/बर्थ की संख्या को सीमित कर दिया है.इसने अपने पिछले सर्कुलर में परिवर्तन कर दिया है जिसमें कैंसर रोगियों को प्रथम प्राथमिकता देते हुये इमरजेंसी कोटे से स्वत: ही सीटें प्रदान कर दी जाती थी.
       इमेरजेंसी कोटा से तात्पर्य उस कोटे से है जिसके तहत उच्चपदाधिकारियों, सांसद , विधायक अथवा गंभीर रूप से बीमार व्यक्तियों को सीटें प्रदान की जाती है. 
      पिछले 19 मई को जारी इस नये सर्कुलर में अब स्लीपर क्लास में 4 बर्थ, तथा केवल  2-2 बर्थ ही चेयर कार,  द्वितीय तथा तृ्तीय वातानुकुलित श्रेणी तथा   प्रथम श्रेणी में इमेरजेंसी कोटा के तहत प्रदान की जायेंगी. 
      आज से लगभग डेढ़ साल पहले उस समय के रेलवे  बोर्ड के सदस्य यातायात श्री प्रकाश ने एक सर्कुलर जारी कर यह नियम बना दिया था कि कैंसर  के रोगियों को प्रमाण पत्र दिखाने पर आरक्षण के समय ही इमेरजेंसी कोटा से स्वत: ही कन्फर्म सीट/बर्थ मिल जाया करेगी.
      कैंसर  रोगियों की बडी़ संख्या को देखते हुये ही यह कदम उठाया गया है. अब कम से कम अन्य रोगियों को भी ट्रेन में अंतिम समय में कन्फर्म बर्थ मिल जाया करेगी. 
      अभी तो होने यह लग गया था कि मुम्बई  , दिल्ली तथा चेन्नई जाने वाली गाडियों में  कभी कभी तो इमेरजेंसी कोटा वाली सारी की सारी सीटें ही कैंसर रोगियों को अलाट हो रही थी अन्य रोगी या लोग चाहे जितनी भी इमेरजेंसी हो किसी भी तरह कन्फर्म टिकट नहीं पा रहे थे.

शुक्रवार, मई 28, 2010

मेरे बेटे का स्कूल में पहला दिन

कल हर्ष पहली बार स्कूल गया. पिछले 4 महीनों से वह उत्साह से लबरेज था और रोज़ रोज़ मुझसे यही पूछता था कि पापा मै स्कूल कब जाउंगा?मेरा  दुर्भाग्य देखिये  कि उसका स्कूल में पहला दिन देखने के दिन ही मै घर में नहीं था.उसे सुबह 6.20 पर स्कूल पहुचना था और मेरी ट्रेन ही 6.20 में आयी. उसकी मां ही   उसे लेकर स्कूल गयी. उस दिन   वह भोर में 3 बजे ही उठ कर बैठ गया और मां द्वारा सुलाने की लाख कोशिश करने पर भी  नहीं सोया. बार बार  यही कहता था कि मुझे स्कूल जाना है. पर उस बेचारे की हिम्मत स्कूल के गेट पर पहुंचते ही टूट गयी और वह रोने लगा.काफी समझाने बुझाने के बाद वह अंदर गया. और कहते हैं न  कि " प्रथम ग्रासे मक्षिका पातम" वही बात हो गयी .उसके स्कूल के  नर्सरी की  क्लास 9.30 तक ही होती है  लेकिन हमें स्कूल की छुट्टी का समय 11.00 बजे पता था जो कि सिनियर क्लास की छुट्टी का समय है. इस लिये उसकी मां उसे लेने 11.00 बजे गयी तब जाकर पता लगा कि वह 1.30 घंटे से वहां हमें  ढुंढ रहा था और रो  रहा था.बेचारा! अब जब मै आफिस से घर आया तो उसने पहला सवाल  ही यही दागा कि पापा आप मुझे लेने क्यों नहीं आये? अब क्या बताउं कि मुझे उसे कितनी सफाई देनी पडी़.
आज स्कूल में उसका दूसरा दिन था. आज उसे  मै ही  स्कूल छोड़ने गया था . पहले तो उसने रोना रोया कि "मुझे स्कूल नहीं जाना मुझे वहां मजा नही आता".पर बाद में तैयार हो गया. और सुखद आश्चर्य कि वह आज न तो स्कूल के गेट पर रोया नही जब मै उसे लेने गया तो वह रोता हुआ दिखा.बल्कि घर आकर आज वह शुद ही किताब लेकर बैठ गया पढने के लिये.
 मुझे लगता है कि उसे अब धीरे धीरे स्कूल में मजा आने लगा है.
आमीन.